विज्ञान एवं तकनीकी से कम लागत पर साग सब्जी उत्पादन

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समीक्षक- डॉ प्रेम बहुखण्डी

पुस्तक समीक्षा

अभी दो दिन पहले ही हम सबने घी संग्रांद का पर्व मनाया है, उसकी आप सबको शुभकामनायें, उससे लगभग एक महीने पहले हमने हरेला मनाया था, ये दोनों पर्व उत्तराखंड राज्य की संस्कृति, प्रकृति से अन्तरंग सम्बन्ध और धन धान्य और समृधि को दरसाने वाले पर्व हैं.
संभवतः देश दृ दुनिया के अन्य हिस्सों में भी इस प्रकार के पर्व होंगे लेकिन वो ज्यादा प्रचारित प्रसारित नहीं है इसलिए मुझे उनकी जानकारी नहीं है, जबकि जिन पर्वों से बाजार सीधा जुड़ा है, जिससे बाजार को सीधा फायदा मिलता है, वो चाहे कहीं के भी हों, दूर दराज के गांवों तक पहुंचे हैं- वेलेंटाइन डे और उससे सम्बंधित पूरा हफ्ता उसी प्रकार के बाजार आधारित पर्व के रूप में मनाया जाता है.
ये भूमिका मैंने इसलिए बताई है क्योंकि हमारा उत्तराखण्ड पिछले 24 साल में नीतिगत तौर पर भटग गया है, मैं खुद राज्य आन्दोलनकारी हूँ, बहुत कम उम्र में जेल गये, उसके बाद इसी विषय पर शोध किया, और मेरा निष्कर्ष है कि उत्तराखंड राज्य की लड़ाई, उधम सिंह नगर के रुद्रपुर या हरिद्वार में सिडकुल लगाने की नहीं थी, हमारी लड़ाई उत्तर प्रदेश के आठ पर्वतीय जिलों में, वहां की भौगोलिक, सामजिक, और सांस्कृतिक परिस्थियों के अनुरूप, एक नए विकास मॉडल के विकास के लिए थी, एक ऐसा विकास का मोडल जो हमारे छोटे छोटे खेतों को आवाद कर सके, एक ऐसा विकास मॉडल जो जल धाराओं को पुनर्जीवित कर सके, एक ऐसा विकास मॉडल जो जंगलों में रोजगार विकसित कर सके, एक ऐसा विकास मॉडल जो जंगलों से जड़ी बूटी, साग सब्जी, फल, लघु वन उपज लाने की इजाजत दे, एक ऐसा विकास का मॉडल जो प्रकृति के सामंजस्य से गांवों को समृद्ध करने की दिशा में कार्य कर सके.
और जब मैं सरकार बोलता हूँ तो सिर्फ वर्तमान सरकार नहीं बल्कि, पिछले 24 सालों की सरकार की बात कर रहा हूँ, इसलिए कोई इसे पार्टी राजनीति से न जोड़े. सरकार के स्तर पर भले ही हम असफल हुए हों, लेकिन समाज के अनेक कर्मयोद्धा अपने अपने स्तर पर, उस दिशा में लगातार पर्यत्नशील हैं, और श्री सुधीर सुन्दिरियाल ऐसे ही कर्मयोद्धा है जो लगातार जल धाराओं को पुनर्जीवित करने, खेतों को आवाद करने और रिवर्स माइग्रेशन के लिए युवाओं को प्रेरित कर रहे हैं.
उनकी इस मुहीम में अनेक साथी सहयोग करते हैं, आज मैं जिस किताब की समीक्षा करने के लिए मैं आया हूँ, उस किताब का शीर्षक है – ‘विज्ञान एवं तकनीकि से कम लागत पर साग सब्जी उत्पादन’, और इसे लिखा है उद्यान विशेषज्ञ डॉ राजेंद्र प्रसाद कुक्साल जी और डॉ स्मृति कुकसाल ने; डॉ राजेंद्र प्रसाद कुक्साल तो किसी परिचय के मोहताज नहीं है, आप उत्तराखंड राज्य के चंद उद्यान विशषज्ञों में से हैं जिनका सामाजिक सरोकार इतना अधिक है, आप अपने ज्ञान का प्रचार प्रसार लगातार करते रहते हैं, और इस पुस्तक के लेखन में जिन्होंने आपस साथ दिया है डॉ स्मृति कुक्साल, आप वनस्पति विज्ञान की सहायक प्रोफेसर हैं.
इस पुस्तक के सम्पादन में सहयोग दिया है श्री एस पी नौटियाल जी ने, इस विषय से बिलकुल भिन्न क्षेत्र, मतलब राज्य कर विभाग से आप संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए हैं. तथा श्री सुभाष चन्द्र नौटियाल जी ने जो टूरिस्ट सन्देश नामक पत्रिका के संपादक हैं.
भल लगद फील गुड ट्रस्ट और विनसर पब्लिकेशन कंपनी के संयुक्त प्रयास से छपी इस पुस्तिका में कुल 10 अध्याय हैं, जिन्हें बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से बांटा गया है, जिसमें सबसे पहले विषय तो यही है कि सब्जी उत्पादन का क्या महत्व है, जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि पंजाब दृ हरियाणा के किसानो के साथ हम गेंहु दृ चावल उत्पादन में बराबरी नहीं कर सकते हैं क्योंकि हमारे खेत भी छोटे हैं और सब खेतों में पानी की पर्याप्त सुविधा भी नहीं हैं, जबकि हरित क्रांति के दौरन जो नये बीज आये हैं वो अधिक पानी और खाद मांगते हैं, इसलिए हमारे लिए वह तकनीकि नहीं है, और हरित क्रांति का पूरे देश में न फैलने के भी यही कारण थे, लेकिन पर्वतीय क्षेत्र की विशिष्ठ भौगोलिक परिस्थिति सब्जी उत्पादन के लिए अनुकूल है, हम शहरी क्षेत्रों के लिए गैर मौसमी सब्जी भी उगा सकते हैं, जोकि उनके हिसाब से गैर मौसमी है जबकि हमारे लिए तो मौसमी ही है, और हमारा हर खेत एक विशिष्ठ climatic conditionपैदा करता है, तो हर प्रकार की सब्जी का उत्पादन किया जा सकता है, इस पुस्तक में इस तथ्य तो बहुत शानदार तरीके से अंकित किया गया है. दूसरा सब्जी से मिलने वाले पोषण पर विस्तार से लिखा गया है.
सब्जी उत्पादन में जो सबसे बड़ी चुनौती होती है वह है उसकी पौध का निर्माण- तो इसी विषय पर, पुस्तक के दुसरे भाग में विस्तार से बताया गया है कि पौध निर्माण कैसे करें, और आप सब जानते हैं कि सब्जी की पौध भी अपना ही एक बाजार है.
कृषि में मृदा परीक्षण एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है, हम पर्वतीय क्षेत्र में अधिकाश पुरातन तकनीकि से खेती कर रहे हैं, हालाँकि जो पुरातन तकनीकि है वह भी, हमारे पूर्वजों के लम्बे अनुभव का परिणाम है, उन्होंने अनेक वर्षों तक, विभिन्न प्रकार के प्रयोग किये होंगे और उसी के आधार पर अपना निष्कर्ष निकाला होगा लेकिन आज अनेक प्रकार के वैज्ञानिक तरीके इजाद किये जा चुके हैं, तेजी से रंग बदलती इस दुनिया में अब हमें वर्षों तक अनुसन्धान में समय खराब करने की जरूरत नहीं है बल्कि जो कृषि वैज्ञानिकों ने परीक्षण के तरीक इजाद किये हैं उनका इस्तेमाल करके, हम तत्काल परिणाम पा सकते हैं, तो मृदा परीक्षण के बारे में पुस्तक के तीसरे अध्याय में विस्तार से बताया गया है.
हम सब जानते हैं कि आजकल जहर युक्त भोज्य पदार्थों के कारण, मनुष्य के स्वास्थ्य में कितनी दिक्कते आ रही हैं और अधिकाश लोग, जहर मुक्त भोजन ढूंढते रहते हैं, हमारी राज्य सरकार भी राज्य को आर्गेनिक खेती के मॉडल के रूप में विकसित करने की दिशा में कार्यरत है, और हम अपने आसपास यह भी देखते हैं कि जो नेपाल से आये भाई बंधू, सब्जी उत्पादन कर रहे हैं वो भरपूर मात्रा में, खाद और केमिकल का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि उनको न तो खेत से प्यार है और न ही जनता से, लेकिन हम जो लोग स्थानीय हैं उन्हें तो खेत से भी प्यार है और पहाड़ से भी , इसलिए हमें चाहिए कि हम जहर मुक्त आर्गेनिक सब्जी उत्पादन में कार्य करें, उसे सर्टिफाइड करवायें और उसकी एक अलग मार्किट भी है, दाम भी अच्छे मिलेंगे, इसलिए पुस्तक के चौथे अध्याय में जैविक / प्राकृतिक खेती पर विस्तार से लिखा गया गया है, लेकिन कुछ लोग सोचेंगे कि जैविक खेती में तो कीड़े आदि लग सकते हैं तो उसे कैसे नियंत्रित करें, इस विषय पर, पांचवें अध्याय में विस्तार से लिखा गया है.
पुस्तक का छटा अध्याय, थ्योरिटिकल मुद्दों से हटकर, टमाटर, शिमला मिर्च, बंद गोबी, फूल गोबी, मटर, आदि 16 किस्म की सब्जियों के उत्पादन की विधि के बारे में हैं. इसमें देशी के अलावा कुछ विदेशी सब्जियों के बारे में भी विस्तार से लिखा गया है.

चूंकि पुस्तक कम लागत विज्ञान एक तकनीकि पर आधारित है जिसे हम वैज्ञानिकों की भाषा में implementation of low
cost S&Tकह सकते हैं तो पोली हाउस ऐसी ही एक तकनीकि है जिससे हम, वातावरण को नियंत्रित कर सकते हैं और उसके आधार पर उत्पादन को बढाया जा सकता है. पुस्तक के सातवें आध्याय में पौली हाउस पर विस्तार से लिखा गया है.

अक्सर हम यह भी कहते है कि करने के सौ तरीके हैं और न करने के हज़ार बहाने, तो पाला भी उसी प्रकार का एक बहाना है जो न करने वाले लोग बनाते हैं, इसलिए पुस्तक के आठवें अध्याय में शीत लहर और पाले से बचाव के तरीकों पर विस्तार से लिखा गया है. पुस्तक के नवें अध्याय में मल्चिंग के बारे में विस्तार से बताया गया है, हालाँकि मल्चिंग तो पहाड़ों में पहले भी करते थे, अक्सर हमने अपने दादा – दादी को देखा था कि कुछ सब्जियों को लगाते वक्त, खेत में घास पत्ते फैला देते थे, तो वही मल्चिंग है, जिस पर विस्तार से लिखा गया है, खेत को अगर जैविक सामग्री जैसे पत्ते, घास, टहनियाँ, फसल अवशेष, पुआल आदि ढक दिया जाये तो मित्र कीटों जैसे केंचुओं की गतिविधि बढ़ जाती है।

सिंचाई के पानी को लेकर भी, न करने वालों के पास सैकड़ों बहाने होते हैं, तो सबसे अच्छा है कि हम फ्लड इरीगेशन के स्थान पर आधुनिक तकनीकि जैसे ड्रिप इरीगेशन, जिसमें थोडा थोडा पानी टपकता रहता है, और पौधे को पर्याप्त पानी मिलता है, पर पानी वेस्ट भी नहीं होता.

कुल मिलकर, 10 अध्यायों की यह पुस्तक, हमारे प्रोग्रेसिव किसानों के लिए एक हैण्ड बुक की तरह है, जिसमें डॉ कुकसाल ने अपने जीवन का पूरा अनुभव उढेल दिया है, सहायक लेखक के रूप में डॉ स्मृति कुकसाल ने आधुनिक शब्दावली को इसमें मिलाकर, इसे आज के युवाओं के लिए बेहतरीन पुस्तक बना दी है.

मैं पुस्तक के लेखक, सह लेखक, संपादक मंडल और फील गुड ट्रस्ट को इस शानदार, पुस्तक के लिए धन्यवाद् देता हूँ. मेरा मानना है कि इतिहास और परम्पराओं से हमें सीखना है, लेकिन लेकिन इतिहास और परम्पराओं की लाठी लेकर, भविष्य या विज्ञान को दूर नहीं भगाना है बल्कि दोनों के बीच सामंजस्य बनाकर, एक नये उज्जवल भविष्य का निर्माण करना है.
संभवतः यह पुस्तक और इसमें छपी सामग्री, उत्तराखण्ड राज्य की मूल अवधारणा के अनुरूप है, जब पर्वतीय गांव उत्पादक होंगे, अधिकतम व्यक्ति उत्पादन से जुड़ेंगे, सब अपने अपने स्तर पर देश निर्माण में भागीदारी करेंगे, तभी सपनों का देश प्रदेश बन सकता है.

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