उत्तराखंड राज्य का लोकप्रिय त्योहार हरेला
राजीव थपलियाल (प्रधानाध्यापक)
यह तो हम सभी लोग भली-भांति जानते ही हैं कि हरेला सिर्फ एक त्यौहार न होकर उत्तराखंड की जीवन शैली का शानदार प्रतिबिंब है। यह प्रकृति के साथ बहुत ही बेहतरीन संतुलन बनाने वाला त्यौहार है। प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन हमेशा से ही हमारे पहाड़ की परंपरा का अहम हिस्सा रहा है। यह बात तो बिल्कुल सोलह आने सच है कि, हरियाली इंसान को बहुत खुशी प्रदान करती है। सर्वत्र हरियाली को देखकर तो किसी भी इंसान का तन-मन प्रफुल्लित हो जाता है। हरेला के इस त्यौहार में लोग अपने घर के हरेले (समृद्धि) को अपने आप तक ही सीमित नहीं रखते हैं बल्कि, उसे अन्य लोगों को बांटते हुए बहुत आनंद की अनुभूति करते हैं। यह विशुद्ध रूप से सामाजिक सद्भभाव और प्रेम की अवधारणा है। हरेला के त्यौहार में हमेशा भौतिकवादी चीज़ों की जगह मानवीय गुणों को वरीयता दी जाती है,क्योंकि मानवीय गुण सदा इंसान के साथ रहते हैं जबकि भौतिकवादी चीज़ें अक्सर नष्ट हो जाती हैं।आज यदि कुछ पहलुओं पर दृष्टि डाली जाय तो हम महसूस करते हैं कि,प्रकृति और मानव को परस्पर विरोधी के तौर पर देखा जाता है वहीं, यह हरेला का त्यौहार मानव जाति को प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की सीख देता है। हरेला पर्व हरियाली और वसुन्धरा पर जीवन को बचाने का संदेश देता है। हम सभी लोगों को यह समझने का प्रयास करना होगा और अपनी आने वाली पीढ़ी को भी यह समझाना होगा कि, हमारे आसपास हरियाली के बचे रहने से मनुष्यों, जानवरों तथा पक्षियों का जीवन भी बचा रहेगा।यहाँ पर यह कहना समीचीन होगा कि, यह पर्व प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन को खासा अहमियत देता है। बहुत सारी खूबियों को अपने दामन में समेटता हुआ यह त्यौहार हम सभी लोगों को बहुत सारी सीख देते हुए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।हरेला पारिवारिक एकजुटता का पर्व भी है।संयुक्त परिवार चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो उसमें हरेला एक ही जगह बोया जाता है। आस पड़ोस और रिश्तेदारों के साथ ही परिवार के हर सदस्य चाहे वह घर से कितना भी दूर क्यों न हो उनको ‘हरेला’ जरूर भेजा जाता है। यह त्यौहार संयुक्त परिवार की व्यवस्था पर भी खूब जोर देता है। संपत्ति के बंटवारे और विभाजन के बाद ही एक घर में दो भाई अलग-अलग हरेला बो सकते हैं। हरेला का पर्व ऋतु परिवर्तन का सूचक भी होता है।समग्रता में यदि देखा जाय तो सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक महत्व के इस पर्व में हरेला को बोने के बाद दसवें दिन काटा जाता है। वैशाखी और होली की तरह ही यह एक कृषि प्रधान त्यौहार है। हरेला से नौ दिन पहले घर में स्थित पूजास्थल पर छोटी-छोटी डलियों में मिट्टी डालकर सात बीजों को बोया जाता है। इसमें- गेंहू, जौ और मक्के के दाने प्रमुख होते हैं।हर दिन जल डालकर इन बीजों को सींचा जाता है ताकि ये नौ दिन में लहलहा उठें। घर की महिलाएं या बड़े बुजुर्ग इसकी हल्की-फुल्की गुड़ाई भी करते हैं।इसके बाद इसे काटकर विधिवत् पूजा-अर्चना कर श्रद्धा पूर्वक देवी-देवताओं को चढ़ाया जाता है और फिर परिवार के सभी लोग हरेले के पत्तों को सिर और कान पर रखते हैं। हरेले के पत्तों को सिर और कान पर रखने के दौरान घर के बड़े बुजुर्ग, आकाश के समान ऊंचा, धरती के समान विशाल और दूब के समान विस्तार करने का आशीर्वाद सभी को देते हैं।इस दौरान कुछ रीति-रिवाज, रश्में, आशीष गीत-संगीत जैसे- ‘जी रया जागि रया, आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया, स्यावै क जस बुद्धि, सूरज जस तराण है जौ..’। आदि स्वस्थ मनोरंजन हेतु किया जाता है। हरेला निर्विवाद रूप से एक कृषि प्रधान त्यौहार है। इसमें जो बीज डाले जाते हैं वो सीजन में होने वाले अन्न के प्रतीक होते हैं।
इन “बीजों को धन-धान्य और समृद्धि के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। ‘जी रे जाग रे’ के रूप में जो भी कामनाएं की जाती हैं उनसे सभी का मन खुश हो जाता है।आकाश के समान ऊंचा, धरती के समान विशाल और दूब के समान विस्तार का आशीर्वाद हमें सीधे तौर पर प्रकृति के साथ जोड़ता है,यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है। हरेला का त्यौहार प्रकृति से बहुत कुछ सीखने और उसके जैसे बनने के लिए समूची मानव जाति को प्रेरित करता है।“ 16 जुलाई को उत्तराखंड राज्य के विभिन्न विद्यालयों तथा कार्यालयों में पर्यावरण संरक्षण हेतु उत्तराखंड लोक संस्कृति पर आधारित हरेला पर्व, वृक्षारोपण करके बड़े हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाया जाना है।इस पर्व का मुख्य उद्देश्य उत्तराखंड की भावी पीढ़ी को प्रकृति से जोड़ना है जिससे उनके हृदय में प्रकृति के प्रति प्यार और संवेदना उत्पन्न हो सके, इस बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम के अंतर्गत राज्य स्तर से विद्यालय स्तर तक सभी संस्थाओं में उपलब्ध भूमि व निकटवर्ती भूमि चिन्हित करके वृक्षारोपण का प्रयास करना है। चिन्हित भूमि पर उद्यान अथवा वन विभाग के मानकानुसार गड्ढे बनाए जायें।प्रत्येक विद्यालय तथा कार्यालय में कम से कम पांच-पांच वृक्ष लगाने का प्रयास किया जाना चाहिए। जिनमें बेल, अमरूद, जामुन,आंवला,संतरा, माल्टा,नींबू व सहजन के वृक्ष लगाए जा सकते हैं। उक्त पौधे उद्यान अथवा वन विभाग से समन्वय स्थापित करते हुए लगाए जा सकते हैं।पौधों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु स्वामित्व निर्धारित करते हुए पौधों को संरक्षित किया जा सकता है। हमारे विद्यालय में भी विद्यालय प्रबंधन समिति के सभी सदस्यों के सक्रिय सहयोग से अध्यापकों तथा छात्र-छात्राओं ने कुछ फलदार तथा छाया दार वृक्षों का रोपण किया।साथ ही विद्यालय में अध्ययनरत छोटे-छोटे बच्चों ने अपनी-अपनी पसंद के अनुसार कई सारे गमलों में विभिन्न प्रकार के रंग बिरंगे फूलों के पौधे लगाकर इस कार्यक्रम की सार्थकता को सिद्ध करने का एक छोटा सा प्रयास किया।
(नोट- इस आलेख को तैयार करने में अन्य संदर्भों की मदद भी ली गई है।)
(लेखक राजकीय प्राथमिक विद्यालय मेरुड़ा, संकुल केंद्र- मठाली, विकासखंड -जयहरीखाल जनपद -पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड हैं।)