हरेला पर्व से आत्मसात् करने से बचेगी धरती की हरियाली
सुभाष चन्द्र नौटियाल
(16 जुलाई, हरेला पर्व पर विशेष)
धरती की हरियाली कैसे बच सकती है यह चिन्ता आज धरती के प्रत्येक मानव की चिन्ता में शुमार हो चुका है। क्योंकि, यह सवाल मानव सहित सम्पूर्ण धरती के प्राणी मात्र के अस्तित्व का सवाल है, इसलिए इस प्रश्न की उपयोगिता सदैव सर्वोपरि है। धरती पर जब तक हरियाली रहेगी तब तक प्राणी समुदाय का अस्तित्व भी रहेगा। वर्तमान दौर में मानव के जीवन जीने की शैली तथा कृत्य ने पंच महाभूतों आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि तथा जल को दूषित किया है, जिसके कारण यह संकट उत्पन्न हुआ है। अपने ही स्वार्थ के वशीभूत होकर मानव ने स्वयं के लिए ही यह अस्तित्व का संकट पैदा किया है। एक ओर घोर व्यावसायिकता तथा भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने के लिए मानव ने प्रकृति का इतना अधिक दोहन किया कि, वह स्वयं की सीमा भी भूल चुका है तो दूसरी ओर आज का मानव प्रकृति से दूर होने के कारण व्यग्र, बेचैन तथा अवसादग्रस्त होकर किसी न किसी रोग से ग्रस्त हो चुका है। अत्याधिक भौतिक सुख-सुविधाओं की चाह ने मानव जीवन के वास्तविक सुख चैन को छीन लिया है। स्वयं के अस्तित्व के कारण घटती हरियाली तथा बढ़ते जलवायु परिवर्तन के प्रभाव ने मानव के मुख मण्डल पर चिन्ता की लकीरें जरूर खींच दी हैं। यही कारण है कि, आज मानव धरती पर हरियाली को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील हो रहा है।
कैसे बच सकती है हरियाली?
मानव सहित समस्त प्राणी समुदाय को जीवन जीने का आधार प्रदान करने वाली हरियाली मानव के अर्न्तमन में सदैव ही सकून और आनन्द देने वाली रही है। संस्कृति का यदि प्रकृति से जोड़कर मानव अपनी जीवन जीने की शैली का अपनाता है तो न सिर्फ धरती की हरियाली बचेगी बल्कि मानव के जीवन में वास्तविक आनन्द पुनः लौट आयेगा। विश्व की प्रत्येक लोक संस्कृति में हरियाली को बचाये रखने के लिए कुछ न कुछ व्यवस्थाएं अवश्य बनायी गयी हैं। यदि इन लोक संस्कृतियों को प्रकृति से जोड़कर जीने का आधार बनाया जाय तो निश्चित ही हरियाली भी बचेगी तथा जीवन का आनन्द भी कई गुना बढ़ जायेगा। उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति में हरियाली को अक्षुण्य बनाये रखने तथा प्रकृति से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हरेला लोक पर्व मनाया जाता है।
क्यों मनाया जाता है हरेला पर्व
हरेला पर्व, जिसका अर्थ ‘हरियाली’ से है। हरेला बरसात के मौसम में होने वाली नई फसल का प्रतीक है। यह सौर श्रावण मास की संक्रान्ति को मनाया जाता है। हरेला पर्व प्रकृति के निकट जाने तथा उसके प्रति सम्मान प्रकट करने का पर्व है। उत्तराखंड को भगवान शिव की भूमि भी कहा जाता है। शिव का जब प्रकृति से मिलन होता है तो सृजन होता है। यही सृजन हरियाली के रूप में समस्त धरती में विस्तार पाता है।
भगवान शिव से जुड़ा है हरेला पर्व
इस पर्व को भगवान शिव से जोड़कर देखा जाता है, भगवान शिव को सावन का महीना अत्याधिक पसंद होता है। इसीलिए यह त्यौहार भी भगवान शिव परिवार को समर्पित है। सावन मास में समस्त धरती हरियाली की चादर ओढ़ लेती है। इसलिए श्रावण मास भगवान शिव को सबसे प्रिय है। प्रकृति भी सावन मास में भगवान शिव का वर्षा जलधाराओं से स्वयं अभिषेक करती है। सावन मास में भगवान शिव परिवार की पूजा अर्चना की जाती है। पर्व के दौरान शिव, माता पार्वती तथा भगवान गणेश की मूर्तियां शुद्ध मिट्टी से बना कर उन्हें प्राकृतिक रंगों से सजाया-संवारा जाता है, इन्हें स्थानीय भाषा में डिकारे या डिकारा कहा जाता है। इन्हीं मूर्तियों की पूजा हरेले से की जाती है।
यह त्यौहार प्रमुखतः उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में धूमधाम से मनाया जाता है। हरेला पर्व शांति, समृद्धि, हरियाली और पर्यावरण संरक्षण का त्योहार है। हरेला माता पार्वती तथा भगवान शिव से समृद्धि के रूप में आशीर्वाद लेने का पर्व है। यह खेती-किसानी से जुड़ा पर्व है, हरे-भरे खेतों में पुनः लौट रही हरियाली को उत्सव के रूप में हरेला पर्व मनाया जाता है। उत्सव के रूप में घरों में खीर, पुवा, पूड़ी, रायता, छोले और विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन तैयार किए जाते हैं। जिन्हें हरेला के साथ भगवान शिव तथा माता पार्वती को अर्पित कर स्वयं भी इन व्यजंनों का आनन्द लिया जाता है।
उत्तराखंड में हरेला कैसे मनाया जाता है?
हरेला का अर्थ दरअसल हरियाली से है, यह त्यौहार हरियाली और नई ऋतु के शुरू होने का सूचक है। घर-परिवार में त्यौहार से 9 दिन पूर्व यानि सौर सक्रान्ति से पहले पत्तों मिट्टी या पहाड़ी बांस की टोकरियों से बने कटोरे में पाँच से सात प्रकार के बीज (जौ, मक्का, तिल, काला चना और सरसों) बोया जाता है। इन्हें हर दिन पानी देता है। त्यौहार के दिन इन्हें काटा जाता है। हरेला से एक दिन पहले, लोग भगवान शिव और देवी पार्वती की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाते हैं, जिन्हें डिकारे या डिकरा के नाम से जाना जाता है, भगवान गणेश, भगवान शिव और देवी पार्वती सहित सभी स्थानीय देवों की पूजा-अर्चना कर अच्छी फसल के लिए आशीर्वाद मांगा जाता है।
ऐसे बोया जाता है हरेला
हरेला बोने के लिए साफ मिट्टी का उपयोग किया जाता है। घर के पास के साफ जगह से मिट्टी निकाल कर सुखाई जाती है और उसे छानकर टोकरी में जमा कर लिया जाता है। फिर 5 या 7 प्रकार के अनाज जैसे- मक्का, धान, तिल, भट्ट, उड़द, गहत और जौ डालकर उसे सींचा जाता है। हरेला को घर या मंदिर में बोया जाता है। घर में इसे मंदिर के पास रखकर पूरे 9 दिन तक देखभाल की जाती है और फिर 10वें दिन इसे काटकर अच्छी फसल की कामना के साथ देवी-देवताओं को समर्पित किया जाता है। घर के वरिष्ठ जन से आशीर्वाद लिया जाता है, वरिष्ठ जन आशीर्वचन के रूप में ये शब्द बोलते हैं –
लाग हरयाळ , लाग दशे , लाग बगवाळ ।
जी रयां जागी रयां, यो दिन यो बार भेंटदी रयां।
दुब जस फैल जाए, बेरी जस फली जाईये।
हिमाल में ह्युं छन तक, गंगा ज्यूँ में पाणी छन तक,
यू दिन अर यू मास भेंटदी रये।।
अगाश जस उच्च ह्वेजे , धरती जस चकोव ह्वेजे।
स्याव जसि बुद्धि है जो, स्यू जस तराण है जो।
जी रायां जागी रायां। यो दिन यो बार भेंटदी रायां।।
(तुम्हारे जीवन में ये हरियाली सदैव बनी रहे। जीते रहो, सजग रहो। तुम्हारी लंबी उम्र हो। इस शुभ दिन पर हर वर्ष मुलाकात करते रहो। जैसी दूर्वा अपनी मजबूत पकड़ के साथ धरती में फैलती जाती है, वैसे आप भी सम्रद्ध होना। बेरी के पौधों की तरह आप भी विपरीत परिस्थितियों में भी फलित, और फुलित रहना। जब तक हिमालय में बर्फ रहेगी तथा जब तक गंगा जी मे पानी रहेगा, अर्थात अन्तन वर्षो तक तुमसे मुलाकात होती रहे, ऐसी हमारी कामना है । आप आसमान के बराबर ऊँचे हो जाओ , धरती के जैसे चौड़े हो जाओ। आपका बुद्धि चातुर्य सियार जैसा तीव्र हो। आपके शरीर मे चीते की जैसी ,ताकत और फुर्ती हो। आप सदा जीते रहे, खुश रहें और हमारी मुलाकात सदा यूं ही होती रहे।)
हरेला उत्सव का उद्देश्य लोगों को प्रकृति तथा पर्यावरण से जोड़ना है। चूंकि पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण उत्तराखंड की संस्कृति का आधार रहा है। हरेला पर्व पर प्रतिवर्ष पौधे लगाना, पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण पर्व है। यह लोगों को प्रकृति द्वारा प्रदान की गई नेमतों को उत्सव के रूप में धन्यवाद ज्ञापित करने का एक तरीका भी है। उत्तराखंड के लोकपर्व हरेला को हरियाली का प्रतीक माना जाता है। राज्य में प्रतिवर्ष हरेला का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस वर्ष यह त्यौहार 16 जुलाई को मनाया जाएगा। धरती की हरियाली को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए हरेला पर्व से आत्मसात् करने की आवश्यकता है।