संस्कृत पुस्तक समीक्षा – जननायिका “तीलूरौतेल्युदयम्’’ महाकाव्यम्
रचयिताः डॉ श्रीविलास बुड़ाकोटी“शिखर“
समीक्षिका- डॉ रोशनी सहायक
असिस्टेंट प्रोफेसर संस्कृत
रा. स्ना. महाविद्यालय कोटद्वार
उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध गढकवि डॉ श्रीविलास बुडाकोटी शिखर विरचित महाकाव्य तीलूरौतेल्युदयम् में गढवाल की एतिहासिक कथावस्तु को उपन्यस्त किया गया है, गढवाल की वीरांगना तीलू रौतेली पर आधृत यह प्रथम महाकाव्य वर्तमान पीढी के समक्ष तत्कालीन सामाजिक उहापोह के चित्र को उजागर करता है।
सर्वप्रथम महाकाव्य के विषय में जानते हैं महाकाव्य संस्कृत साहित्य की वह छन्दोबद्ध विधा है जिसमें नायक या नायिका के सम्पूर्ण जीवन वृत्त का सर्गबद्ध चित्रण किया जाता है आचार्य विश्वनाथ ने लक्षण दिया-
सर्गबन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुरः।
सद्वंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः।
एकवंशभवा भूपाः कुलजा बहवोऽपि वा,
शृंगारवीरशान्तानामेकोऽङ्गी रस इष्यते।।
एकवृत्तमयैः पद्यैरवसानेऽन्यवृत्तकैः।
नाति स्वल्पा नातिदीर्घाः सर्गा अष्टाधिका इह।।
अर्थात् महाकाव्य का नायक कोई देवता, कुलीन क्षत्रिय या एक वंशज अनेक राजा होते हैं, प्रमुख रस श्रृंगार,वीर या शान्त होता है, कथानक का प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है। इसमें सभी नाटकीय सन्धि, एतिहासिक कथानक, चतुवर्ग प्राप्ति, प्रत्येक सर्ग में एक छन्द वाले पद्य तथा अन्त में छन्द परिवर्तित किया जाता है जिसमें भावी कथा का संकेत भी दिया जाता है, इसमें आठ से अधिक सर्ग होते हैं। महाकाव्य के ये समस्त लक्षण तीलूरौतेल्युदयम् में सर्वांगीण रूप से घटित होते हैं।
तीलूरौतेल्युदयम् महाकाव्य का कथानक के दृष्टिकोण से विमर्श करें तो यह महाकाव्य दस सर्गों में विभक्त तीलू रौतेली के जीवन का साङ्गोपाङ्ग दर्शन कराता है, उसका जन्म गढवाल के सबसे बडे थोक के थोकदार भूप सिंह गोर्ला के घर में हुई थी, भौतिक सुख सुवधाओं की सम्पन्नता में वह पढने, खेलने, अस्त्र शस्त्र की विद्या ग्रहण करने के लिए स्वतन्त्र थी यहाँ तक कि मवेशी चुगाने भी अपनी सखियों के साथ जाती है, बेटी की यह स्वतन्त्रता केवल थोकदार भूप सिंह की उदारता न थी यह पहाड की सदियों की पहचान है पहाड़ ने अपनी बेटियों को कभी भी दीवारों में कैद करके नहीं रखा,उन्हें स्वतन्त्रता दी आसमान में उडान भरने की, जिससे वह प्रत्येक बुरी परिस्थिति में संघर्ष कर जीवन को उन्नत बना सके। यही कारण था कि किशोरी तीलू ने पिता और दोनों भाइयों के बलिदान के बाद रण में उतरने का दृढ संकल्प लिया, वह रणचण्डी बन शत्रुओं को चूर्ण करती हुई, तलवारों के प्रहार से भूमि को रक्तरंजित करती हुई कहर बरसा रही थी। यह उन दिनों की बात थी जब कुमायूं में कत्यूरियों का शासन था और गढवाल में राजा मेदिनीशाह का राज्य था, गढवाल नरेश की उदासीनता के कारण कत्यूरी गढवाल में आकर लूटपाट करते और स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करते, धीरे धीरे उनका यह कुकृत्य बढने लगा तो गढवाल नरेश ने गुराड गढ के थोकदार भूपसिंह को आज्ञा दी कि कत्यूरियों को अपनी सीमा से बाहर भगाओ, भूपसिंह अपने दोनों पुत्रों भगतू व पत्वा,तथा होने वाले दामाद भवानी सिंह और अन्य वीरभडों के साथ युद्धभूमि में उतरे। कई दिनों तक युद्ध चलता रहा थोकदार भूपसिंह के पराक्रम व रणनीति से कत्यूरी और गहेड आतंकियों के लहू से गढभूमि शोणित होती रही किन्तु लडते लडते अन्ततः भूपसिंह ने मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर किये उनके बलिदान के बाद उनके पुत्र भगतू और पत्वा दोनों वीरों ने भी लडते लडते मातृभूमि पर प्राणार्पण किये, सेना का मनोबल टूट चुका था इसके पश्चात् दामाद भवानी सिंह ने भी इस जन्मभूमि के लिए प्राणार्पित किये। इस घटना ने तीलू और उसकी माता मैणावती के मन को इतना झकझोर दिया, कवि ने उनके करुणक्रन्दित श्वासों की, संवेदनाओं की, भावनाओं की जितनी मार्मिक पंक्तियां दी है कि पाषाण भी द्रवित हो जाएं-
मैणावती विह्वल रोदिति स्म सा, भाग्येन हासं तु कृतं तया सह।
सिन्दूरहीनं कृत्वान मंगली प्रभा भर्ता विना जीवनं रिक्तमभवत्।।
उस किशोरी तीलू को उसकी माता मैणावती के द्वारा कर्कश शब्दों में युद्ध के लिए उद्यत किया गया, ठीक उसी तरह जैसे भट्टनारायण के वेणीसंहार में द्रौपदी के द्वारा पाण्डवों को युद्ध के लिए उद्यत किया जाता है। कभी कभी जीवन में यही कर्कशता प्रेरणा का तथा हमें मजबूत बनाने का काम करती है, तीलू अपनी बिन्दुली नाम की घोडी में सवार हो रणभूमि में उतर कर शत्रुओं को धूल में मिलाती हुई विजयश्री को धारण करती है। युद्ध जीतकर प्रसन्नमना वह अपनी माता को मिलने उत्सुक जब मार्ग में एक स्थान पर नदी में स्नान करने उतरी तो एक अधमी शत्रु रामू रजवार जो घायल होकर झाडियों में छिपा था उसने छल से तीलू पर तलवार से प्रहार किया और वह मृत्यु को प्राप्त हो गयी। गुराडगढ के सम्मान के लिए वीरांगना तीलू रौतेली का सम्पूर्ण जीवन समर्पित हो गया, गढवासी आज भी तीलू की पूजा करते हैं।
तीलूरौतेल्युदयम् की शास्त्रीय विवेचना की जाय तो कवि द्वारा महाकाव्य में रस, ध्वनि, रीति, वृत्ति, औचित्यादि तत्वों की समुचित मीमांसा की गई है वहीं कलापक्ष भी निखर कर सम्मुख आया है उपमा, अनुप्रास, विशेषोक्ति, निदर्शना अलंकारों का अनेक स्थलों में वर्णन प्राप्त होता है, छन्दों में वंशस्थ, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा आदि दृष्टिगोचर होते हैं, महाकाव्य में वीररस की प्रधानता है जो अनेक भेद प्रभेदों सहित प्रतिपद विलसित हुआ है।साथ ही अवसर प्राप्त होने पर कवि ने शृंगार रस का भी मंजुल सन्निवेश किया है। रौद्र और करूण रस का प्रयोग भी देखने को मिलता है। प्राकृत काव्य में कहीं कहीं विरोधाभास भी देखने को मिलता है, प्रथम अंक में कवि द्वारा स्वयं को विवेकशून्य सरस्वती पुत्र कहा गया है, सरस्वती पुत्र भी विवेकशून्य हो सकता है यह एक प्रश्नचिन्ह है।
महाकाव्य के विविध घटना संयोजन से कवि के भौगोलिक ज्ञान का परिचय मिलता है यथा स्यूंसी, बंगार, गहेड, टिकोलीखाल, गुराड, खैरागढ, सांदणधार, बूंगी, उमटागढ, सल्टमहादेव, भिलण और भौनक्षेत्र, सराईंखेत और दुनाव। साथ ही मन्दाल नदी का दक्षिण की ओर बहाव और रामगंगा में मिलना, पूर्वी नयार नदी का उद्गम व बहाव, इसके पश्चात् खटलगडनदी का भी वर्णन प्राप्त होता है। अष्टम सर्ग में प्रकृति तथा वनस्पतियों का मनोहर वर्णन दृष्टिगोचर होता है, आम, नीम, सागौन, शीमल, वट, पाकड, रीठा, हरड, शहतूत, लिसोडा, चीड, हल्दू, खाडीक और तिमला आदि वृक्षों व पादपों का चित्रण किया गया है।
पहाडी भोज्य पदार्थों का वर्णन करना भी कवि को अभीष्ट है चतुर्थ सर्ग यद्यपि युद्ध की रणनीति का है कैसे भोज्य का प्रबन्ध करना है क्योंकि रणक्षेत्र में ऊर्जा की नितान्त आवश्यता होती है इसी स्थल पर कवि ने झंगोरे, कोंदो, कोणी, ढबेणी रोटी जैसे पारम्परिक व्यंजनों की बात की है। वाद्य यन्त्रों में हुडका और ढोल प्रमुख है जनमानस को एकत्र व जागरुक करने का भी ये प्रमुख साधन है। पहाडी परिधान का वर्णन यथास्थल प्राप्त होता है। उस समय युद्ध के लिए आधुनिक अस्त्र शस्त्र नहीं थे फलतः वीरभड युद्ध में तलवार, खुंखरी ,दरांती तथा कृषि के यन्त्रों का प्रयोग करते थे, कहीं न कहीं राजा मेदिनीशाह के प्रजा के प्रति हीनभाव और अपने कर्तव्य के प्रति उदासीनता प्रतिपद उजागर होती है।
निष्कर्षतः गढकवि श्रीविलास बुडाकोटी द्वारा सृजित तीलूरौतेल्युदयम् गढवाल का प्रथम महाकाव्य समीक्षा के पटल पर खरा उतरा है, देश काल घटना का सम्यक् संयोजन किया गया है, सभी नाटकीय सन्धियों से समन्वित व शास्त्रीय तत्वों का मञ्जुल सन्निवेश प्राप्त होता है।