मैं हिन्दी हूं, मैं अपना घर ढ़ूंढ़ रहीं हूं
कविता
गणनाथ मनोड़ी
वर्ष-वर्ष हर वर्ष आज पुनः
चौदह सितम्बर है हिन्दी दिवस।
अपने ही राष्ट्र भारत में मैं हिन्दी,
क्यों इतनी लाचार इतनी विवश लाचार।
भारत गणतंत्र से पूछ रही हूं। भारत के जनगण से पूछ रही हूं । मैं हिन्दी हूं। मैं अपना घर ढ़ूंढ़ रही हूं। १
भारत के गणराज्य ने मुझे,
राष्ट्रभाषा पद की गरिमा से,
संविधान भाषा विधान में,
किया अलंकृत बड़े मान से।
उसी मान को हृदय संजोए,
आशा और विश्वास जगाए।
पुनः संसद को देख रही हूं।
मैं हिन्दी हूं। मैं अपना घर ढ़ूंढ़ रही हूं। २
कभी नहीं सोचा था मैंने,
यह दिन भी मैं देखूंगी।
सदा एकता पाठ पढ़ाती,
उत्तर दक्षिण में बंट जावूंगी।
अंग्रजों से मुक्त भारत में,
अंग्रेजी से ही जूझ रही हूं।
मैं हिन्दी हूं। मैं अपना घर ढ़ूंढ़ रही हूं। ३
हिंदी दिवस पर मेरे नाम से,
भाषण, गोष्ठियां मंच सजेंगे।
शपथें आह्वान बचानी हिन्दी,
जहां तहां माइक गरजेंगे।
छली जा रही अपनों से ही,
अपनों को ही ढूंढ़ रही हूं।
मैं हिन्दी हूं। मैं अपना घर ढ़ूंढ़ रही हूं। ४
दिया राष्ट्रभाषा पद मुझको,
मेरा अधिकार दिला दो।
बना इंडिया से भारत तो,
भारतभाषा भी हिन्दी कर दो।
मैं पचहत्तर वर्षों से प्रतिक्षण ,
अधिकार स्वयं का मांग रही हूं।
मैं हिन्दी हूं। मैं अपना घर ढ़ूंढ़ रही हूं। ५
very nice peom