प्रकृति की धरोहर : 400 साल पुराना आम का वृक्ष

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हमारी धरोहर, हमारी पहचान

सुभाष चन्द्र नौटियाल

कमन्द गाँव में है 400 साल पुराना आम का पेड 

गाँव की प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा आर्थिक धरोहर है यह आम का वृक्ष

पेड़ को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करवाने के लिए गाँव के लोग निरन्तर हैं प्रयासरत़

किसी भी गाँव या समाज की पहचान सिर्फ मेले त्यौहार,रीति-रिवाज, परंपरायें, धार्मिक उत्सव, बोली-भाषा, ही नहीं बल्कि वहॉं पर शताब्दियों से खड़े वृक्ष भी होते हैं। ऐसे वृक्ष क्षेत्र की पहचान ही नहीं होते हैं, बल्कि उस गाँव की सांस्कृतिक धरोहर भी होते हैं, जिनसे पूरा गॉंव और समाज जुड़ा रहता है। हर गाँव में एक दो ऐसे वृक्ष अवश्य होते हैं, जिनसे उस गाँव की न सिर्फ पहचान होती है, बल्कि उस गाँव के निवासियों के लिए वह वृक्ष नहीं बल्कि एक सामाजिक एवं संस्कृति से ताना बाना और यादें जुड़ी होती हैं।

    उत्तराखण्ड के एक गाँव में एक 400 साल पुराना आम का वृक्ष है।  यह गाँव भारतवर्ष में ग्राम कमन्द के नाम से जाना जाता है। कमन्द गाँव  ग्रामसभा – थली, विकासखण्ड- पौड़ी, जिला – पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड राज्य का एक छोटा सा गाँव है। कमन्द गाँव, गढ़वाल मण्डल मुख्यालय पौड़ी शहर के पाद पर स्थित श्रीनगर-पौड़ी रोड़ पर पौड़ी से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 

 इस गाँव  में प्रसिद्ध आम का वृक्ष तथा प्राकृतिक जलधारा एक महत्वपूर्ण धरोहर ही नहीं बल्कि इस गाँव की सामाजिक, संस्कृतिक, ऐतिहासिक, तथा आर्थिकी का आधार स्तम्भ है। यह आम का वृक्ष सिर्फ हमारे लिए आम का वृक्ष मात्र नहीं है बल्कि वह हमारे गाँव के आमजन जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, इसके बिना तो हम लोग अपने को अधूरा समझते हैं। पूरे गाँव की जीवन धारा यहीं से होकर बहती है। 

 गर्मियों के दिन में इस आम के नीचे बैठकर छाया का आनन्द लेना हो, या दिन में सोने के लिए जाना हो, या फिर खेलने के लिए जाना हो। एक साल खूब आम आते हैं, और दूसरे साल नहीं आते हैं, लेकिन आम इसके लिए अपवाद था, यह आम इतना विशालकाय था कि इस आम के पेड के नीचे पॉच लम्बे-लम्बे खेत हैं, और इस आम मे चार प्रकार के आम आते हैं, कुछ पीले रंग के, कुछ लालिमा लिए हुए, कुछ लंबे और हरे रंग के और कुछ हल्का हरा और पीला एवं एक हिस्से में पूरा गहरा हरा रंग का आम आता था। हर साल दो से तीन टहनियॉें पर आम अवश्य आते थे। पहले जब आम का मौसम होता था, तो हर परिवार सुबह-सुबह रात के टपके हुए आम के कट्टे भर भर कर ले जाते थे, पूरे क्षेत्र में इस पेड़ में सबसे मीठे, रसीले आम आते हैं, इस पेड़ पर स्वादिष्ट आम आते हैं, जो कि, अन्य रसदार आमों को उन सबके सामने फीका ही साबित कर देते हैं। इस आम को गाय, सुअर, शौलू (साई) बंदर, लंगूर सब तो खाते ही हैं। उसके बावजूद भी हमारे गाँव एवं अन्य गाँव के लोग भी इस आम को लेने के लिए आते रहे हैं। कभी इस आम के पेड़ के फलों की सुरक्षा के लिए पूरे गाँव में बारी लगायी जाती थी तो कभी आम को गाँव वालों की सहमति से ठेके पर भी दिया जाता था। 

     आम बहुत पुराना आम है, कहते हैं कि जब से हमसे 08 पीढी पूर्व हमारे पूवर्ज नौटी से आये तब से यह पेड़ विद्यमान है, अब 10वीं पीढी चल रही है। यानी इस पेड़ ने 09 पुस्तों को सिर्फ देखा ही नहीं बल्कि जिया भी है, इस पेड़ ने ना जाने कितने लोगों और जानवरों को आम खिलाया होगा, अपने छांव में बिठाया होगा, ना जाने कितने पशुओं ने इस पेड़ की छांव में शरण ली होगी, इस पेड़ पर ना जाने हम जैसे किशोरावस्था पर पत्थर से मारकर आम गिराये होगें और ना जाने कितने पत्थरों की मार सही  होगी, लेकिन अभी तक यह पेड़ इन सबको सहते हुए भी गाँव की सांस्कृतिक सामाजिक के रूप में आधार स्तम्भ बना हुआ सशक्त होकर खड़ा है। बरसात में खेत धान और मंडुवे की गुड़ाई करती हमारी, दादी, माँ, बहिन ,ताई, चाची, भाभी, बेटी, बहु जो भी गुडाई और निराई करती तो इस आम के टपके हुए आम को अपनी साड़ी की गत्ती बनाकर, उसकी झोली में आम रखती और  निराई गुडाई करते हुए बीच बीच में आम का स्वाद लेती। बारी के समय में रहने वाले लोग भी सुबह सुबह काम पर जाने से पहले आम के पेड़ के नीचे जाकर टपके हुए आम लेने चले जाते थे। बचपन में प्रातःकाल का समय तो इसी पेड़ के नीचे गुजरता था। आम के पकने के समय में तो कई बार तो आम का ही आमऊणी बनाकर खा लेते थे। कभी गाँव के लोगों में सुबह सुबह आम लेने  के लिए प्रतियोगिता होती थी, सबसे जल्दी कौन लेकर आता है।

 यह आम हम सबके लिए एवं हमारी पुरानी कई पीढ़ियों को एक दूसरे को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। साथ ही इस पेड़ के नीचे बैठकर ग्वैर (चरवाहे ) अपनी थकान मिटाते रहे हैं तथा पहले कई बार इसी पेड़ के नीचे सो जाते थे।  जब भी आम पर बौंर आने का समय होता तो सबकी निगाहें इस आम पर होती थी यह आम कितना आया है, यह सबके लिए चर्चा का विषय बना रहता। यहाँ का स्थानीय निवासी देश रहा हो या प्रदेश में इस धारे के आम की चर्चा अवश्य होती रही है। आम के धारे का पेड़ जलधारा सहित न सिर्फ हमारी पहचान है बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत भी है। 

    आज जलधारा सहित अपनी अमूल्य धरोहर को सहेजने की आवश्यकता महसूस हो रही है, हमारे लिए यह सिर्फ आम का पेड़ नहीं बल्कि हम सबके लिए जीवन का अहम हिस्सा जैसा है जिसके बिना हम अपने आप को अधूरा समझते हैं।  इस पेड़ ने ना जाने कितनी खुशियाँ, मन मुटाव देखे होगें, और ना जाने कितने मन मुटाव को खत्म होते देंखें होगें। कितने परिवारों को बनते बिगड़े देखा होगा, न जाने कितने लोगों के बचपन, बालपन, युवा, प्रौढ और बुजुर्ग होते हुए और बुजुर्गो को जाते हुए देखा होगा। ना जाने कितने गम और ना जाने कितनी खुशियों को, ना जाने कितने बंसत, ना जाने कितने पतझ़ड तूफान, आंधियों से गुजरा होगा, लेकिन यह  उसके बावजूद भी आज अड़िग खड़ा हमें जीवन जीने की सीख दे रहा है। जीवन आपाधापी, ऑधी तूफान और कड़कती बिजली, सिकुड़ते जंगल, सूखते हमारे धारे- नौले फिर भी इसकी जीजिविषा ने इस आम के वृक्ष को अमृत्व का वरदान दिया है। यह पेड़ स्वयं में कई ऐतिहासिक दस्तावेज समेटे हुए है। 

  आज हम अपनी पुरातन सांस्कृतिक धरोहर को सहज कर रखने तथा आने वाली पीढ़ी तक पहुँचना हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। क्योंकि इस पेड़ को हमने वास्तव में जीया है और इससे हमारी सब यादें जुड़ी हैं। यह पेड़ हमारी ही नहीं बल्कि पूरे मानव समाज की धरोहर है।

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