सम्पादकों के आचार्य : सम्पादकाचार्य पण्डित भैरव दत्त धूलिया

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(125 वीं जयन्ती पर विशेष)
सुभाष चन्द्र नौटियाल
मध्य हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड की धरती सदा ही रत्नप्रसूता रही है। इस परम् पुण्य भूमि पर समय-समय पर समस्त मानव जाति के उद्वार के लिए अनेक ऋषि-मुनियों, मनीषियों, महान विचारकों, वीर-भडों, नेतृत्व क्षमता से परिपूर्ण समाज सुधारकों तथा मानव हितकारियों ने जन्म लिया है। ऐसे मनीषियों का आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा युगों तक आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करती रहेगी। ऐसे ही एक सिद्धहस्त ज्ञानसम्पन्न, महापुरूष सम्पादकों के आचार्य, सम्पादकाचार्य पंडित भैरव दत्त धूलिया भी थे। अपने समय में उन्हें सम्पादकों का आचार्य यानि गुरू माना जाता था। आमजन हो या खासजन सभी सम्पादकाचार्य पण्डित भैरव दत्त धूलिया को सम्मान, प्रेम एवं श्रद्धाभाव से सम्पादकजी के नाम से सम्बोधित करते थे।

जन्म एवं परिवारिक पृष्ठभूमि

उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में जनजागरण के अग्रदूत तथा प्रसिद्ध स्वाधीनता संग्राम सेनानी पंडित भैरव दत्त धूलिया का जन्म 18 मई सन् 1901 को उत्तराखण्ड राज्य के जिला -पौड़ी गढ़वाल, पट्टी- लंगूर वल्ला, ग्राम- मदनपुर(धुलगांव) में हुआ था। आपकी माता का नाम सावित्री देवी तथा पिता का नाम पण्डित हरिदत्त धूलिया था। आप के ताऊजी पण्डित श्रीराम धूलिया ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। आप के पिताजी कर्मठ तथा सभी ग्रामीण कार्यों में दक्ष थे। इसी दक्षता के कारण गांव में उन्हें ‘विलेज बेरिस्टर’ के नाम से सम्बोधित किया जाता था।

शिक्षा-दीक्षा

आपकी प्राथमिक शिक्षा उच्च प्राथमिक विद्यालय बनखण्डी में हुई, साथ ही आपके घर पर संस्कृत के तीन विद्वानों ने आप को घर पर संस्कृत एवं व्याकरण की शिक्षा दी। इसके पश्चात कुछ समय तक आप ने दुगड्डा में औपचारिक शिक्षा ग्रहण की। सन् 1918 में भैरव दत्त धूलिया आगे की पढ़ाई के लिए बनारस चले गये। वहां उन्होंने क्वींस कॉलेज अब वाराणसी संस्कृत विद्यालय से प्रथमा एवं मध्यमा की परीक्षा उत्तीर्ण की। साथ ही उन्होंने अनेक विद्वानों से संस्कृत, आयुर्वेद एवं अंग्रेजी भाषा की शिक्षा भी ग्रहण की। ऋषिकुल हरिद्वार से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। तब इसका संचालन पण्डित मदन मोहन मालवीय की पंजीकृत संस्था ऋषिकुल ब्रह्मचर्य आश्रम हरिद्वार द्वारा किया जाता था।

विवाह एवं परिवार

आप का विवाह सन् 1915 में मात्र 14 वर्ष की आयु में चमेठा ग्राम निवासी तत्कालीन लैन्सडौन क्षेत्र के प्रतिष्ठित लकड़ी व्यापारी लीलानन्द कोटनाला की पौत्री तथा केवलराम कोटनाला की पुत्री छवाणी से हुआ था। विवाह के समय छवाणी देवी की उम्र मात्र 9 साल थी। केवलराम कोटनाला क्षेत्र में लकड़ी के ठेकेदार थे।

आप के दो पुत्र तथा एक पुत्री थी। बड़े पुत्र का नाम केशव चन्द्र धूलिया, पुत्री का नाम इन्दू धूलिया तथा छोटे पुत्र का नाम शरद धूलिया था। केशव चन्द्र धूलिया उच्च न्यायालय में न्यायधीश रहे। उनके तीन पुत्र हिमांशु धूलिया, सुधांशु धूलिया तथा तिग्मांशु धूलिया हैं। न्यायधीश केशव चन्द्र धूलिया का निधन वर्ष 1985 में हो गया था। शरद चन्द्र धूलिया की तीन पुत्रियां हिमानी धूलिया, शिवानी धूलिया तथा ज्योत्सना धूलिया हैं। इनकी पुत्री का विवाह काशीपुर जोशी परिवार में हुआ था। वर्ष 1940 में आपकी धर्मपत्नी का निधन हो गया था। पत्नी के मृत्यु के बाद जीवनपर्यन्त सम्पादकजी ने योगी, तपस्वी एवं बह्मचर्य का जीवन जिया।

समाज में योगदान

13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग काण्ड हुआ। इस काण्ड के विरोध में गांधीजी ने देशभर में असहयोग आन्दोलन शुरू किया। इस आन्दोलन को धार देने के लिए गांधीजी ने देशभर का दौरा किया तथा एक अगस्त 1920 को तिलक दिवस मनाने की घोषणा हुई। साथ ही कांग्रेस का सदस्यता अभियान के तहत चवन्नी सदस्य बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। इसी समय भैरव दत्त धूलिया कांग्रेस के सदस्य बने। यहीं से उनका देश सेवा का सफर शुरू हुआ। सन् 1921 में आप असहयोग आन्दोलन को धार देने के लिए बनारस से गढ़वाल वापस आ गये।

गढ़वाल कांग्रेस कमेटी के संस्थापक सदस्यों में एक रहे भैरव दत्त ने 1921 में मुकन्दीलाल, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, मंगत राम खन्तवाल, केशर सिंह रावत, गोवर्धन बड़ोला, गोविन्द प्रसाद कोटनाला के साथ कुली बेगार आन्दोलन के रूप में पर्वतीय क्षेत्रों में असहयोग आन्दोलन का संचालन किया। कुली बेगार प्रथा का विरोध करने के लिए क्षेत्र में पहली बैठक उनकी ससुराल चमेठा में आयोजित की गयी थी। भैरव दत्त धूलिया ने 1921 से 1935 तक गढ़वाल में संचालित विभिन्न स्वाधीनता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। सन् 1931 में उन्होंने कुछ समय तक पटना से प्रकाशित दैनिक नवशक्ति में सम्पादकीय मण्डल में भी काम किया।

सन् 1939 में लैन्सडाउन सैन्य क्षेत्र से हिमालय पब्लिशिंग एण्ड ट्रेडिंग कम्पनी के तत्वावधान में 19 फरवरी, 1939 को कर्मभूमि साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया गया। तत्कालीन समय में यह पत्र गढ़वाल और टिहरी रियासत में आन्दोलनकारियों का प्रमुख मुखपत्र बना रहा। इस कम्पनी के प्रमुख संचालकों में भक्तदर्शन सिंह रावत, कुवंर सिंह नेगी ‘कर्मठ’, योगेश्वर प्रसाद बहुगुणा, प्रयाग दत्त धस्माणा, हरेन्द्र सिंह रावत, नन्दा दत्त घिल्डियाल थे। कुछ समय पश्चात ललिता प्रसाद नैथाणी तथा जगमोहन सिंह नेगी भी संचालक मण्डल में शामिल हुए। शुरूआती दौर में साप्ताहिक समाचार पत्र कर्मभूमि का सम्पादन का कार्य भक्तदर्शन सिंह रावत ने किया परन्तु कांग्रेस सहित अन्य गतिविधियों में व्यस्थता के चलते कर्मभूमि का सम्पादन भैरव दत्त धूलिया ने सम्भाला। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखने के कारण कर्मभूमि पर प्रतिबन्ध भी लगा तथा जुर्माना भी लगा। नवम्बर 1939 के आस-पास संचालक मण्डल से मतभेद होने के कारण कर्मभूमि को छोड़कर तिब्बतिया कॉलेज, दिल्ली में पठ्न-पाठन का कार्य किया। भक्तदर्शन सिंह रावत के अनुरोध पर पुनः सम्पादक मण्डल में शामिल हुये।

दिल्ली में भारत छोड़ो आन्दोलन का नेतृत्व अरूणा आसिफ अली तथा तिब्बतिया कॉलेज में छात्रों को एकजुट करने का कार्य भैरव दत्त धूलिया कर रहे थे। तिब्बतिया कॉलेज, दिल्ली में उन्होंने मुम्बई से ‘अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से निकाल दो’ पुस्तिका का प्रकाशन करवाया। पुस्तिका में भारत छोडों आन्दोलन की रूपरेखा तथा आमजन से आन्दोलन में सहयोग का आवाह्न किया गया था। आमजन में इस पुस्तिका को हनुमान चलीसा के नाम से वितरित किया गया। गढ़वाल क्षेत्र में योगेश्वर प्रसाद धूलिया तथा केशव चन्द्र धूलिया ने इस पुस्तिका वितरण कर भारत छोडों आन्दोलन को नई धार दी। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ पर्चे बंटवाने, आमजन को सरकार के खिलाफ भड़काने तथा दिल्लीं में छवाण सिंह आदि क्रान्तिकारियों को संरक्षण देने और राजद्रोह के आरोप में 10 नवम्बर 1942 को सहायक जिलाधीश ए. डी. पन्त की अदालत ने धारा 126 और 129 के अर्न्तगत 7 वर्ष की कड़ी सजा सुनाई गयी। किन्तु ब्रिटिश सरकार के कमजोर होने तथा देशभर में प्रचण्ड विरोध के चलते उन्हें 1945 में जेल से रिहा कर दिया गया। देश के स्वतंत्र होने के बाद सन् 1988 तक आप निरन्तर कर्मभूमि का सम्पादन एवं प्रकाशन करते रहे। इस प्रकाशन में आपके छोटे भाई योगेश्वर प्रसाद धूलिया तथा आपके छोटे पुत्र शरद चन्द्र धूलिया आपके सहयोगी रहे। समय और निरन्तर साधना ने भैरव दत्त धूलिया को कर्मभूमि का पर्यायवाची बना दिया था। राष्ट्रीय आन्दोलन में अपने समर्पण भाव से किये गये त्याग को उन्होंने अपना कर्तव्य माना तथा इसके एवज में उन्होंने सरकार से कभी भी किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं की। समाज और सरकार को आइना दिखाने के लिए उन्होंने अनेक सम्पादकीय लिखी जिसका एक नमूना – अविनाश कान्त गढ़वाल के जिलाधिकारी थे, जिलाधिकारी जनहितों का अनदेखा कर रहे थे। जिलाधिकारी को आइना दिखाने के लिए उन्होंने कर्मभूमि में ‘अविनाश कान्त विनास की ओर’ शीर्षक से एक सम्पादकीय लिखी। इसके प्रकाशित होते ही हंगामा मच गया। सम्पादकजी पर प्रशासन ने मुकदमा दर्ज करवाया। केस चला परन्तु जनसहयोग से अन्ततः केस खारिज हो गया। उत्तर प्रदेश में चन्द्रभानु गुप्त मुख्यमंत्री थे। उनके कार्यो से असन्तुष्ट होकर उन्होंने एक सम्पादकीय लिखी जिसका शीर्षक था ‘उत्तर प्रदेश में घोर अन्धकार, चन्द्र और भानु दोनों गुप्त’ इसी प्रकार ‘हर डाल पर उल्लू बैठा है अन्जामे गुलिस्तां क्या होगा’ तथा ‘मैं गुनाहों को यूं बख्श देता हूं दाढ़ी हिलाकर’ आदि अनेक संग्रहर्णीय सम्पादकीय लिखी। उनके द्वारा लिखी गयी अनेक सम्पादकीय ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। देश को दिशा देने के लिए उन्होंने 1962 तथा 1967 का विधानसभा का चुनाव निर्दलीय लड़ा। 1962 में चुनाव हार गये। 1967 में चुनाव जीते परन्तु सरकार के कामों से असन्तुष्ट होकर मात्र 7 महीने में ही त्याग पत्र दे दिया। बाद में वह संविद सरकार कुछ दिनों बाद स्वयं ही गिर गयी। उन्होंने संस्कृत तथा हिन्दी में ऋतम्बरा काव्य संग्रह का लेखन भी किया। जिसका बाद में अंग्रेजी में अनुवाद भी किया गया। उन्होंने कई शोधात्मक विषयों पर भी लेख लिखे उनके द्वारा लिखी गयी सम्पादकीय समाज का दर्पण एवं राष्ट्र की धरोहर हैं। सन् 1988 में पुण्य आत्मा, परमात्मा में विलीन हो गयी।

संस्मरण

बनारस में जब गांधीजी का आगमन हुआ तो प्रथम बार भैरव दत्त धूलिया ने उनके दर्शन किये। भैरव दत्त धूलिया उनके सादे लिबास से बहुत प्रभावित हुए। भारी भीड़ होने के कारण वे गांधीजी का भाषण सुनने हॉल में न जा सके। अगले दिन उन्होंने गांधीजी का भाषण समाचार पत्र में पढ़ा। गांधीजी के विचारों तथा लिबास से प्रभावित होकर वे गांधीजी के पक्के अनुयायी बन गये। अपने संस्मरण में वे लिखते हैं – ‘‘इन्हीं आन्दोलनों के दरमियान गांधीजी दुबारा बनारस आये। वे बनारस के केंट स्टेशन पर उतरे थे। भीड़ अभूतपूर्व थी। सारा स्टेशन, स्टेशन का पुल तथा रास्ता आदमियों से भर गया था। …….दूसरे दिन हिन्दू कॉलेज, महाराजा बनारस हॉल में गांधीजी का व्याख्यान था। छात्र और जनता भारी संख्या में उपस्थित थे। मालवीय जी भी सभा में उपस्थित थे। गांधी जी लडकों को असहयोग का उपदेश देने आये थे। बड़ा कौतुहल पूर्ण दृश्य था। मालवीय जी ने कहा कि, लडकों को पढ़ाई नहीं छोड़नी चाहिए। पढ़ाई के साथ-साथ देश का काम भी करना चाहिए। इसलिए विश्वविद्यालय बन्द नहीं होना चाहिए। महात्मा जी बोले भाइयों अगर आपको किसी का कहना मान कर काम करना हो तो आप मालवीय जी जैसा कहते हैं वैसा करो परन्तु इस समय देश मुसीबत में पड़ा है, आपको देश के लिए सब कुछ न्यौछावर करना है। इसमें आप अपने अन्तःकरण को टटोलें और जैसे अन्तःकरण की आवाज हो वैसा ही करें। देश को दासता से मुक्त करना है। उसमें एकबार सब कुछ न्यौछावर करना होगा। रोज मीटिगें होती रही और एकदिन 500 लड़कों ने विद्यालय छोड़ने का निश्चय कर लिया।’’

गढ़वाल एवं कुमांऊ में असहयोग आन्दोलन की शुरूआत कुली-बेगार प्रथा के विरोध के साथ शुरू हुआ। उस समय जब अंग्रेज अधिकारी, हाकिम, पटवारी आदि अपने दौरे पर आते थे तो सभी हिस्सेदारों को बेगारी में योगदान देना पड़ता था। जैसे कुली प्रदान करना, भोजन, चावल, घी, घोड़े के लिए घास आदि। भैरव दत्त धूलिया अपने संस्मरण में लिखते हैं –

“पहाड़ी जिलों में हाकिमों का सामान ढोने के लिए अंग्रेज हुकूमत द्वारा ’कुली बेगार’ को एक कानूनी रूप दे दिया गया था। गांव का हर हिस्सेदार, जिसका नाम फाट में दर्ज होता था एक कुली समझा जाता था। हाकिमों के अलावा पटवारी भी जब पट्टियों में घूमते थे और एक गांव से दूसरे गांव जाते थे तो उन्हें बेगार में भोजन तथा सामान देने के लिए एक कुली दिया जाता था।मालगुजार इस व्यवस्था को करता था। कुछ गांवों पर भोजन सामग्री की बेगार जैसे अच्छे बासमती के चावल, अच्छा घी आदि था। कुछ गांवों वालों पर दूध की बेगारी होती थी। यदि साहब लोगों का घोड़ा हो तो घास और दाने की बेगारी होती थी। फिर सामान ढोने की बेगारी महत्वपूर्ण होती थी। साहब, सीरस्तेदार, अहलमद, चपरासी, भंगी सभी के लिए अलग गांव थे। बेगार का बंटवारा पटवारी करता था। पटवारी की योग्यता का मानदंड उसकी बेगार की व्यवस्था ही थी।“ बैरिस्टर मुकुन्दीलाल के कहने पर भैरव दत्त धूलिया, भोला चन्द्र चन्दोला, भोला दत्त डबराल आदि नौगांवखाल (पट्टी चांदकोट) डेप्युटी कमिश्नर पी. मेसन की बेगार बन्द करने के लिए भेजे गये। वहां थोकदार केसर सिंह ने पूरी व्यवस्था कर रखी थ। वे बेगारी समाप्त करने में सफल हुए। नौगांवखाल में मालगुजार लोगों को छोड़कर एक भी व्यक्ति बेगारी देने नहीं आया। मेसन अपना सामान वहीं छोड़कर पौड़ी आ गये और सरकार को बेगारी समाप्त करने के लिए पत्र लिखा। यह गढ़वाल में आन्दोलन की पहली जीत थी।

अपने बारे में लिखते हुए
‘‘मैं जब दुगड्डे में पढ़ता था तो मेरी आयु करीब 14 वर्ष की थी। हमारा परिवार अपने क्षेत्र में समृद्ध तथा प्रतिष्ठित परिवार था। पिताजी दो भाई थे। उम समय हमारे ताऊजी के चार पुत्र दो पुत्रियां थीं। मेरे पिताजी का उस समय मैं एक पुत्र तथा दो पुत्रियां (मेरी दो बहिने) थीं. ताऊजी के तीन पुत्रों के विवाह हो चुके थे। अब चौथी पारिवारिक परम्परा से मेरे विवाह की बराबरी आई।’’

‘‘आखिर चमेठा ग्राम के प. केवलराम जी की पुत्री से मेरा विवाह तय हुआ। उन दिनों श्री केवलराम जी एक ख्यातिप्राप्त ठेकेदार थे। उनके पिताजी का नाम श्री लीलानंद था। वे बड़े ख्यात थे। लैंसडौन छावनी के वे मात्र एक लकड़ी के व्यापारी थे।’’

‘‘छवाणी नाम का कारण मेरी पत्नी मेरे श्वसुर की ज्येष्ठ पुत्री थी। उससे पूर्व उनके सभी बालकों की मृत्यु होती रही। गांव के पुराने लोगों का कथानक था कि यदि बालक बचते न हों तो उन्हें जन्म के समय जूठी पत्तल में रख दिया जाए तो वे जी जाएंगे। ऐसा ही उन्होंने किया। तदनुसार लव-कुश की तरह मेरी स्त्री का नाम छवाणी पड़ गया। लव गाय के पूछ के बाल को कहते हैं। सीता जी के जब दो युगव (जुड़वां) पुत्र हुए तो पैदा होते ही गर्भ का क्लेद गाय के पूछ के बालों से पोछा, वह लव हो गये। जिनका कुश घास से पोछा वे कुश हो गए। मेरी स्त्री जूठी पत्तल पर रखी गई थी वह छवाणी कहलाई। छवाणा नाम पहाड़ी भाषा में उच्छिष्ठ (जूठे) का है। जब यह तय हो गया कि मेरा विवाह चमेठा से होगा तो माघ का महीना विवाह का दिन तय हुआ।’’

‘‘हमारा पुरोहित परिवार था। हमारे यजमान बहुत थे। तीन-चार गांव तो पूरे थे फिर इष्ट मित्र अलग थे। बारात में सबको आमंत्रित करना कर्तव्य होता है। इस प्रकार हमारे परिवार में बड़ी-बड़ी बारातें तब जाती रही हैं। मैं दो भाइयों में छोटे भाई का मात्र एक बेटा था। ताऊ जी के तीन लड़कों की शादी हो चुकी थी। सब यजमानों का ख्याल था कि मेरी शादी धूमधाम से हो। सब यजमान उसमें भाग लेंगे। मेरे पिताजी साधारण ब्याह के पक्षपाती थे पर मेरे ताऊजी ने इसे स्वीकार नहीं किया। पूरे धूमधाम से बारात की बात तय हो गई। उन दिनों बारात में गाने वाली उत्तम गायिका वेश्या को बुलाने की पद्धति थी। यह प्रतिष्ठा का विषय माना जाता था। मेरे ब्याह में दो गायिका वेश्याएं बुलाई गई। चार जोल के घरेलू बाजे थे। 16 देसी बाजे वाले थे। तुरही और सिंणाई घरेलू शुभसूचक बाजे थे। 32 डांडियां विविध मेहमानों तथा प्रतिष्ठित यजमानों के लिए थीं। 64 दंडी ले जाने वाले व्यक्ति थे। आतिशबाजी की पूरी व्यवस्था थी रात भर जलायी जाया करें। करीब सब 6 सौ बारात थी। कई घोड़े भी थे। इस प्रकार बारात एक छोटी पलटन जैसी बन गई।

उन दिनों रिवाज था मिरजई, चुस्त पायजामा, सफेद टोपी, या पगड़ी पहनने का, लोग सब सज-धजकर बारात में आते थे। बारातें पैदल जाती थीं। तब मोटर सड़क केवल कोटद्वार से लैंसडौन के लिए उफरैखाल तक ही थी। बाकी पैदल सड़क या पैदल मार्ग थे। बारात सज-धज कर चमेठा के लिए रवाना हुई। हमारे यहां से चमेठा करीब 12 या 14 मील था। दो मील से अधिक बारात की लंबाई थी।’’

कर्मभूमि फाउंडेशन
फरवरी 2023 में पंडित भैरव दत्त धूलिया की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए उनके परिजनों ने ‘कर्मभूमि फाउंडेशन उत्तराखंड’ नाम से एक ट्रस्ट का गठन किया। ट्रस्ट ने निर्णय लिया कि हर वर्ष मई माह में किसी प्रतिष्ठित पत्रकार को समाज में उनके अद्वितीय योगदान के लिए ‘पंडित भैरव दत्त धूलिया पत्रकारिता पुरस्कार’ से सम्मानित किया जाएगा। पुरस्कार की राशि एक लाख रुपए रखी गई है तथा सम्मान में प्रशस्ति पत्र व शॉल भेंट किया जाता है। वर्ष 2023 में यह पुरस्कार पत्रकार जय सिंह रावत तथा वर्ष 2024 में पत्रकार राजीव लोचन शाह को दिया जाएगा। वर्ष 2025 में 18 मई (रविवार) को कर्मभूमि फाउंडेशन द्वारा कोटद्वार में आयोजित कार्यक्रम में प्रसिद्ध पत्रकार रमेश पहाड़ी को ‘पंडित भैरव दत्त धूलिया पत्रकारिता पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।

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